दद्दा तो दद्दा ही रहे

  दद् को सार्थक किया जीवन भर,देना और देना।प्रेम देना,सहायता देना किस कीमत पर दिल को ले कर।कमल जैसे सुंदर तन से नहीं मन से भी,स्वयं तो सदा खिले ही रहते थे जो मिले उसे भी खिला दें। हास्टेल के लोगों को जोड़े रहने के लिए एक सूत्र थे जिस माला में सैकड़ों फूल लेकिन सभी के साथ जुड़े।"सूत्रे मणिगणा इव" को सार्थक करते थे दद्दा।

  "पर हित सरिस धर्म नहिं भाई" रामायण में सर्वोच्च धर्म बताया है लेकिन दद्दा न पूजा, न तिलक,न हवन,न माला लेकिन पर उपकार में स्वयं धर्म का रूप थे।यही उनकी इबादत,पूजा सब थी।परम पूज्य रज्जू भैयाके परिवारिक सदस्य और उनके साथ बहुत रहे लेकिन संघ का सेवा भाव जितना उनमें उतरा था ऐसा तो देखा ही नहीं।कितने मुस्लिम उनके मित्र, सलाउद्दीन उनमें एक और अपना अभिन्न ही मानते थे। अब्दुल कासिम क्रिकेटर परम प्रिय।सभी का हित,सहायता,स्मरण,वार्ता उनका जीवन था।

  शादी का कभी सोचा नहीं।बस देवेन्द्र त्यागी उनके अति निकटतम  उनसे इस विषय पर मजाक, खिंचाई करते थे। वह हास्टेल को ही परिवार मानते थे।एक और कुंआरे उनके साथ बैठक बाज थे श्री एच सी गुप्ता,आई ए एस,उस समय डी एम इलाहाबाद। दोनों फक्कड़ रोज डी एम रेजीडेंस पर बैडमिंटन और खाना।शराब,नशा से सदा दूर।सब लेते रहें दद्दा दूसरों के नशा से ही नशा ले लेते थे।

   ज्यादा विस्तार हो रहा इसलिए फिर लिखेंगे उनकी खेल प्रतिभा,खेल भावना, अहंकार शून्यता, आदि पर।

  दद्दा आप कैसे हम लोगों से अलग हो सकते हो।इस जीवन में नहीं।सदा हमें अपनी बातों से गुदगुदाते रहेंगे आप‌।शरीर तो जाते हैं प्रेम और स्नेह का शरीर नहीं होता उस रूप में आप सदा रहेंगे।

  राम निवास चतुर्वेदी

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